सनातन हिन्दू धर्म में दान की महिमा असीम है तथा दान का विशेष महत्व है।अन्नदान (Annadaan Donation) ही महादान है,और शास्त्रों के अनुसार यदि कोई सबसे बड़ा दान है तो वह अन्न दान है।यह संसार अन्न से ही बना है अर्थात अन्न से ही संसार की समस्त रचनाओं का पालन होता है।संसार में अन्न एकमात्र ऐसी वस्तु है जिससे शरीर के साथ-साथ हमारी आत्मा की भी तृप्ति होती है. इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है कि यदि आप कुछ दान करना चाहते हो तो अन्नदान करो. अन्नदान करने से हमें बहुत ही लाभ होता है।इससे पुण्य की प्राप्ति होती है।

हिन्दू धर्म के सभी शास्त्रों में अनेक प्रकार के दान के बारे में बताया गया है, उसमें अन्नदान (Annadaan Donation) सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि संसार का मूल अन्न है, किसी के भी प्राण का मूल अन्न है।अन्न ही अमृत बनकर मुक्ति प्रदान करता है।
अन्न के कारण ही सात धातुएं पैदा होती हैं, अन्न ही सम्पूर्ण जगत का उपकार करता है। इसलिए यदि आप दान करना चाहते है तो अन्न का दान (Annadaan Donation) करना चाहिए।
स्वयं इन्द्रदेव के साथ अन्य देवता भी अन्न की उपासना करते हैं, तथा वेदों में अन्न को ब्रह्मा कहा गया है। सुख की कामना करते हुए ऋषियों ने पहले अन्न का ही दान किया था।अन्नदान (Annadaan Donation) से ही उन्हें तार्किक और पारलौकिक सुख मिला।
अन्नदान (Annadaan Donation) से जुडी कथा

कथा भी हमारे पुराणों में दर्ज है। जिसके अनुसार एक बार भगवान शिव, ब्राह्मण रूप धारण कर पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे। उन्होंने एक वृद्ध विधवा स्त्री के दान मांग लेकिन उसने कहा कि वह अभी दान नहीं दे सकती क्योंकि वह अभी उपले बना रही है। जब उस ब्राह्मण ने हठ किया तो उस स्त्री ने गोबर उठाकर ब्राह्मण को दान में दे दिया। जब वह स्त्री परलोक पहुंची तो भोजन मांगने पर उसे खाने के लिए गोबर ही मिला। जब उसने पूछा कि गोबर क्यों दिया गया है तो जवाब में उसे यही सुनना पड़ा कि उसने भी यही दान में दिया था। इस तरह से अन्नदान (Annadaan Donation) के महत्व को समझा जा सकता है और यह बेहे जाना जा सकता है कि यह अन्न किस तरह जीवन और मृत्यु पर्यंत हमारी आत्मा की संतुष्टि के लिए आवश्यक है।
अथर्व वेद में कहा गया है—‘शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त सं किर’ अर्थात् ‘सैंकड़ों हाथों से धन अर्जित करो और हजारों हाथों से उसे बांटो।’ वेद में दान करने के लिए धन कमाना मनुष्य के लिए आवश्यक कर्म माना गया है। भारतीय संस्कृति में माना जाता है कि दान से देवता भी वश में हो जाते हैं। दान ईश्वर को प्रसन्नता प्रदान करता है। और सब लोग भगवान की खोज करते, किंतु दानी की खोज भगवान स्वयं करते हैं।।
जीवन में किया हुआ दान अगले जन्मों में सुख एवं आनन्द देने वाला होता है। परलोक में केवल दान ही प्राणी से मित्रता निभाता है। महाभारत के यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि मरने के बाद साथ क्या जाता है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि मरने के बाद दान ही साथ जाता है। भविष्यपुराण में भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं—‘मृत्यु के बाद धन-वैभव व्यक्ति के साथ नहीं जाते, व्यक्ति द्वारा सुपात्र को दिया गया दान ही परलोक में पाथेय (रास्ते का भोजन) बनकर उसके साथ जाता है।’ हम जो भी देते हैं, वह वास्तव में नष्ट नहीं होता बल्कि दुगुना-चौगुना होकर हमें मिलता है। दान दिया संग लगा, खाया पिया अंग लगा, और बाकी बचा जंग लगा। ‘नादत्तं कस्योपतिष्ठते’ अर्थात् बिना दिए किसी को क्या मिलेगा। जितना बोओगे, उसका कई गुना अधिक पाओगे। महाभारत के अनुशासनपर्व में बताया गया है कि पूर्वजन्म के किन कार्यों के कारण शुभ या अशुभ फल प्राप्त होते हैं।
(Annadaan Donation) दान किसको दें ?
यह भी एक विशिष्ट प्रश्न है। (Annadaan Donation) दान देने के मुख्यतः दो नियम हैं जिनका हमें दान देते समय ध्यान रखना चाहिए – प्रथम – श्रद्धा तथा द्वितीय – पात्रता। श्रद्धा से तात्पर्य है कि हमारा कितना मन है अर्थात हमारी कितनी क्षमता है। क्षमता से कम या अधिक दिया गया दान दान नहीं अपितु पाप कहलाता है। इसको हम एक उदाहरण से भली भाँति समझ सकते हैं, यदि किसी जातक की क्षमता पचास रूपये दान करने की है तो उसे पचास रूपये ही दान करने चाहिए। पचास के स्थान पर दस रूपये अथवा सौ रूपये दान करना दान नहीं अपितु पाप है। दान कार्य शुद्ध तथा प्रसन्न मन से किया जाना चाहिए। बिना श्रद्धा के मुसीबत अथवा बोझ समझ कर दान कभी भी नहीं करना चाहिए, इससे तो अच्छा है कि दान कार्य किया ही न जाये। किसी को अहसान जताकर कभी भी दान नहीं देना चाहिए। शुद्ध हृदय से दान देने से अपने हृदय को भी शांति मिलती है तथा दान लेने वाला भी खुश होकर मन से दुआ देता है, यह जरूरी नहीं कि उस दुआ की शब्दों के द्वारा ही अभिव्यक्ति हो।
(Annadaan Donation) दान का दूसरा नियम पात्रता है अर्थात हम दान किसको दे रहे हैं वह दान की हुई वस्तु का उपभोग कर पाएगा या नहीं। इस तथ्य को हम इस प्रकार से समझ सकते हैं कि किसी देहात में बान से बुनी चारपाई पर सोने वाले व्यक्ति को शहर में डनलप के गद्दे पर यदि सोने के लिए कहा जाये तो उसे सारी रात नींद नहीं आएगी करवटें ही बदलता रहेगा। इसी प्रकार गरीब भिक्षुक को जो फटे-पुराने वस्त्रों में रहता है यदि नया वस्त्र पहनने को दिया जाये तो वह वस्त्र उसको काटेगा, वह उस वस्त्र को पहन नहीं पाएगा या तो वह उसे बेच देगा या फेंक देगा, उसे तो फटे पुराने घिसे हुये ही वस्त्र पसन्द आएंगे। भरे पेट वाले को भोजन खिलाने से उसके मन से कोई दुआ नहीं निकलती है अपितु यदि भूखे पेट वाले दरिद्र व्यक्ति को भोजन खिलाया जाये तो वह पूर्णतः तृप्त होकर मन से दुआएँ ही देगा। दान भोजन का ही नहीं किसी भी वस्तु का हो सकता है। रोगी के लिए औषधि, अशिक्षित के लिए शिक्षा, भूखे को भोजन, निर्वस्त्र को वस्त्र कहने का तात्पर्य यह है कि जिस के पास जिस वस्तु की कमी है और वह उसको प्राप्त करने में असमर्थ है तो अमुक जातक को अमुक वस्तु की व्यवस्था करा देना भी दान ही श्रेणी में आता है। अतः दान देते समय विशेष ध्यान देना चाहिए कि दान उचित पात्र को ही दिया जाये।